दिल्ली, पंजाब, नेपाल 1990-91
एक पत्रकार का बुनियादी काम अपने दौर को दर्ज करना हुआ करता है। लेकिन पत्रकारों की एक जमात ऐसी भी है, जो इतने से संतुष्ट नहीं होती। वह अपने दौर के साथ ज्यादा गहरा रिश्ता बनाना चाहती है। मेरा संबंध इसी जमात से है। अपने देश में इस मिजाज के पत्रकार 1947 से पहले बहुतायत में पाए जाते थे। फिर सत्तर के दशक में उनकी एक बड़ी तादाद सामने आई। लेकिन नब्बे दशक का मध्य आते-आते इनका आना लगभग बंद हो गया। 1988 में मैंने पटना से निकल रहे साप्ताहिक 'समकालीन जनमत' से पत्रकारिता शुरू की। जून 1990 में मुझे इसी पत्रिका की तरफ से दिल्ली भेजा गया।
साँप, हाथी और महंथ
दिल्ली आने से मेरा कोई विरोध नहीं था। बल्कि यह सोचकर अच्छा ही लगा कि सोच-समझ को नए धरातल पर ले जाने में शायद इससे कुछ मदद मिले। लेकिन 1989 में भोजपुर के असाधारण चुनाव अभियान में की गई शिरकत ने कोई एक ऐसी लुत्ती मन में लगा दी थी कि महानगर के अकेलेपन के साथ तालमेल बिठाना कुछ ज्यादा ही मुश्किल लग रहा था। संयोग से यही वह नाटकीय समय था जब मेरे आवास, 30, मीनाबाग के बमुश्किल दो किलोमीटर के दायरे में आने वाले दशकों के लिए भारत की राजनीति का खाका रचा जा रहा था।
मेरे दिल्ली पहुँचने के दो-तीन महीने भीतर की ही बात है। समय ठीक से याद नहीं आ रहा कि 1990 की जुलाई थी या अगस्त। हरियाणा में राजस्थान की सीमा से सटी मेहम नाम की विधानसभा सीट पर उपचुनाव हो रहा था। इधर बीजेपी, उधर लेफ्ट के समर्थन वाली संयुक्त मोर्चा सरकार में किंग मेकर कहे जाने वाले चौधरी देवीलाल के बेटे ओमप्रकाश चौटाला इस सीट से चुनाव लड़ रहे थे और उनकी पुरानी पार्टी लोकदल के ही एक बागी उम्मीदवार आनंद डांगी ने उन्हें चुनौती दे रखी थी। इस चुनाव को कवर करने के लिए ही मैंने हरियाणा की अपनी पहली यात्रा की थी।
बाद में पता चला कि मेहम में कर्फ्यू जैसी स्थिति बनाकर और यहाँ के लगभग सारे ही बूथों पर कब्जा करके चौटाला ने चुनाव जीत लिया। देवीलाल और उनकी पार्टी की इस अंधेरगर्दी के खिलाफ सरकार के भीतर से पहली आवाज उठाने वाले यशवंत सिन्हा थे, जो मात्र तीन-चार महीनों बाद जनता दल टूटने पर देवीलाल (और चंद्रशेखर) के साथ जाने वाले पहले बड़े नेता भी साबित हुए।
अजीब समय था। 1977 में जब जनता पार्टी सरकार बनी थी तब मैं बच्चा ही था, लेकिन सुना है, उसका हाल भी कमोबेश जनता दल के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार जैसा ही था। हम लोग आईएनएस बिल्डिंग के सामने संजय चौरसिया की चाय की दुकान पर जनता दल के छुटभैया नेताओं से गपास्टक करते तो वे लगातार वीपी सिंह को गालियाँ देते नजर आते। 'आस्तीन का साँप है, किसी को भी टिकने नहीं देगा। जो भी इसका साथ देता है, उसे बेइज्जत करने में इसको एक मिनट नहीं लगता।'
मेहम कांड को लेकर जनता दल के भीतर बहस शुरू हुई तो चौधरी देवीलाल ने अपने एक इंटरव्यू में अरुण नेहरू को हाथी कह दिया। अरुण नेहरू वीपी सिंह से अड़ गए कि अब सरकार में आप या तो मुझे रखें, या देवीलाल को ही रख लें। अगस्त में जारी इस बवाल का पहला अध्याय सितंबर के पहले ही हफ्ते में उप प्रधानमंत्री पद से देवीलाल की विदाई के साथ समाप्त हुआ।
जहाँ तक ध्यान आता है, 7 सितंबर 1990 को बोट क्लब पर वीपी सिंह को जवाब देने के लिए देवीलाल, कांशीराम और प्रकाश सिंह बादल की एक संयुक्त रैली हुई। बहुत ही उपद्रवी और भयानक किस्म की जाट प्रधान रैली। सनसनी थी कि शरद यादव और रामविलास पासवान अभी आते ही होंगे - यहीं खड़े-खड़े वीपी सिंह की सरकार पलट जाएगी और राजा का बाजा बजा दिया जाएगा। इस चक्कर में छुटभैये नेता भाषण पर भाषण दिए जा रहे थे कि चौस्साब की तकरीर तो शरद यादव के आने और वीपी सिंह की सरकार जाने की घोषणा के साथ ही शुरू होगी। लेकिन शरद नहीं आए तो नहीं आए।
कद शरद यादव का तब भी कमोबेश अभी जितना ही था, लेकिन जनता दल के भीतरी समीकरण कुछ ऐसे बने हुए थे कि यूपी और बिहार के पिछड़ावादी नेता इस वक्त देवीलाल के पीछे एकजुट थे और सेकंड इन कमांड के रूप में उनका नेतृत्व शरद यादव कर रहे थे।
बहरहाल, शरद यादव नहीं आए और रैली में ही लोगों को, खासकर रैली कवर करने आए पत्रकारों को पता चल गया कि पर्दे के पीछे खेल हो चुका है। 1978 में मोरारजी देसाई ने चौधरी चरण सिंह की गैर-सवर्ण राजनीति को पैदल करने के लिए जिस मंडल कमिशन का गठन किया था, उसकी बरसों से धूल खा रही रिपोर्ट की अनुशंसाएँ लागू करने का फैसला वीपी सिंह ने देवीलाल को पैदल करने में कर लिया था। सभी लोग समझ चुके थे कि उस दिन बाजा असल में वीपी का नहीं, किसी और का बजा था।
रैली में फ्रस्टेशन का माहौल था। काफी तोड़फोड़ भी हुई। बोट क्लब पर राजनीतिक रैलियाँ बंद होने की पृष्ठभूमि दरअसल ताऊ की इस रैली ने ही तैयार की थी। शाम को ताऊ का हाल पता करने के लिए मैं उनके आवास 1, वेलिंगटन क्रिसेंट रोड गया। विशाल बंगले के बाहर मारुति-800 गाड़ियों की लंबी कतार लगी हुई थी, जो तब नव धनाढ्य तबकों की पहचान मानी जाती थी। किसी बड़े अखबार का ठप्पा अपने पर था नहीं। नेताओं के बंगलों पर जाने में दिक्कत तो मुझे हमेशा ही होती थी। इस बार भी हुई लेकिन जैसे-तैसे भीतर चला गया तो वहाँ पता चला - 'ताऊ अंटा (अफीम की गोली) लेकर सो गया है, तू ऐसा कर, आ जा कल-परसों कभी भी, दो-चार मिन्ट बात हो जावेगी।'
अगले दिन तक दिल्ली की सियासी शतरंज पर ताऊ की हैसियत वजीर तो क्या प्यादे की भी नहीं रह गई थी। संसद की अनेक्सी में लालू यादव के आने की चर्चा जोरों पर थी। देवीलाल के समर्थक वहाँ जमा थे। उन्हें उम्मीद थी कि ताऊ ने वीपी सिंह से सीधे पंगा लेकर, उनके खास आदमी रामसुंदर दास के हाथ से बिहार की गद्दी छीन कर जिस आदमी को सौंप दी, कम से कम वह तो इस मौके पर साथ जरूर देगा। लेकिन वह तो होना नहीं था। लालू यादव अनेक्सी में अपने दल-बल के साथ थे। किसी ताऊ समर्थक ने नारेबाजी की शक्ल में जैसे ही उन पर गद्दारी की तोहमत लगाई, लालू यादव हाथ में जूता लेकर खड़े हो गए - 'हरे स्साला, मारेंगे जुत्ता से दिमाग सही हो जाएगा।'
यह उत्तर भारत में पहली बार सच्चे अर्थों में एक पिछड़ा उभार की शुरुआत थी, जिसके निशाने पर पारंपरिक ऊँची जातियों के अलावा अभी तक अ-सवर्ण राजनीति का नेतृत्व करने वाले जाट भी थे।
इसके ठीक अगले दिन, या शायद 10 सितंबर 1990 को बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक के बाद पार्टी अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने अक्टूबर महीने में सोमनाथ से राम रथयात्रा शुरू करने और 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुँच कर बाबरी मस्जिद की जगह भव्य राम मंदिर बनाने की शुरुआत करने की घोषणा कर दी। उस समय अखबारों का हल्ला देखकर लगता था कि यह शुद्ध बकवास है। कहाँ धाव-धूप कहाँ माँग-टीक। अभी साल भर पहले तक तो बोफोर्स की मारी कांग्रेस मंदिर बनवाने का गदर काट रही थी, अब मंडल का हल्ला शुरू हुआ तो ये सज्जन भी वही चनाजोर गरम बेचने निकल पड़े।
इतना साफ था कि अगड़ा-पिछड़ा विभाजन हिंदू एकता वाली बीजेपी की मुहिम के खिलाफ जाएगा। इसे रोकने के लिए उसके नेता कुछ न कुछ तो करेंगे ही। लेकिन इसके जवाब में वे इतने आनन-फानन में बाकायदा एक आक्रामक अभियान छेड़ देंगे, ऐसा किसी ने सोचा नहीं था। किसी मुहिम का राजनीतिक औचित्य होना एक बात है, लेकिन यह काम क्या इस तरह बच्चों की डिबेट की तरह तुर्की-ब-तुर्की स्टाइल में संभव है?
बीजेपी का दफ्तर उस समय पत्रकारों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ करता था। पार्टियों की प्रेस ब्रीफिंग का टाइम आम तौर पर चार बजे का ही होता था लेकिन बीजेपी दफ्तर में यह साढ़े चार बजे हुआ करती थी। सबसे खास बात यह थी कि बीजेपी की ब्रीफिंग में उस समय हर दिन मिठाई मिलती थी, लिहाजा कांग्रेस और जनता दल की बीट कवर करने वाले रिपोर्टर भी उधर से थोड़ा जल्दी निकल कर बीजेपी कार्यालय पहुँचने की कोशिश करते थे। थोड़ी दूर स्थित वीएचपी कार्यालय पर ब्रीफिंग रेगुलर नहीं होती थी लेकिन जब होती थी तो मिठाइयाँ वहाँ तीन-चार पीस मिलती थीं।
आडवाणी की मंदिर घोषणा के ठीक बाद वीएचपी दफ्तर में महंथ अवैद्यनाथ और अशोक सिंघल की प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई, जिसमें पत्रकार भूमिका में होने के बावजूद एक कार्यकर्ता की असाध्य खुजली के साथ मैंने उनसे पूछा कि आप इस समाज के बड़े-बुजुर्ग हैं, देशव्यापी यात्रा निकलेगी तो समाज में उत्तेजना फैलेगी, लोग मारे जाएँगे, इस बारे में क्या आपने कुछ सोचा है। अवैद्यनाथ ने इसका जवाब कुछ घाँव-माँव ढंग से दिया, जो अब ठीक से याद भी नहीं है, अलबत्ता इतना याद है कि प्रेस कॉन्फ्रेंस में अगली सीट पर बैठे कई स्वनामधन्य पत्रकार मुझसे गाली-गलौज पर उतारू हो गए।
परेशान समय के बौद्धिक
अगर पूछा जाए कि किस एक बुद्धिजीवी को मैं सबसे ज्यादा मिस करता हूँ तो दिमाग में सबसे पहला नाम अरविंद नारायण दास का आएगा। 1990 में वे टाइम्स ऑफ इंडिया के असिस्टेंट एडिटर और एडिट पेज के इंचार्ज हुआ करते थे, लेकिन पंद्रह एक साल पहले वे पूर्णकालिक नक्सली कार्यकर्ता रह चुके थे। समाज, संस्कृति, विचारधारा और राजनीति में उनकी सहज गति थी। दृष्टि की व्यापकता के अलावा उनके यहाँ ऊँचाई और गहराई भी थी, जो भारतीय बौद्धिकता में प्रायः एक साथ नहीं मिलती।
अपने इर्द-गिर्द की चीजों के बारे में वे नई बातें कहते थे, लेकिन इस तरह कि सुनने-पढ़ने वाले को लगता था, यह सब मैंने पहले ही सोच रखा है। हम जैसे नए लोगों की बातें भी ऐसे सुनते थे जैसे इनमें हर बार कुछ नया मिल जाने की उम्मीद कर रहे हों। 1990 के उस जटिल दौर को समझने में अरविंद एन. दास से बड़ी मदद मिलती थी। देवीलाल प्रकरण में एक बार मैंने उत्तेजना में उन्हें रात बारह बजे फोन कर दिया। फोन उनकी बेटी ने उठाया और कहा - 'क्या यह कोई समय है किसी शरीफ आदमी के घर फोन करने का?' अगले दिन मैंने माफी माँगी तो उन्होंने जवाबी माफी माँगने के से स्वर में कहा कि उसने नींद में फोन उठाया होगा, और आपको वह जानती भी तो नहीं।
भारतीय मीडिया जगत, खासकर उसके वैचारिक नेता टाइम्स ग्रुप में आ रहे एक बुनियादी बदलाव में अरविंद एन. दास की जगह एक मायने में वाटरमार्क जैसी थी। अगले दो वर्षों में हमारा मीडिया देखते-देखते दोटकिया हिंदूवाद और देहदर्शनी उथलेपन से भर गया। बीच-बीच में मैं अरविंद जी से मिलने टाइम्स हाउस आता था तो वहाँ जिम्मेदार अंग्रेजी पत्रकारों के बीच होने वाली चर्चा भी सुनने को मिलती थी। उनकी सबसे बड़ी चिंता यही थी कि टाइम्स ऑफ इंडिया भी अब हिंदुस्तान टाइम्स बनने की राह पर बढ़ रहा है। अगले ही साल अरविंद नारायण दास और दिलीप पडगाँवकर ने टाइम्स ऑफ इंडिया छोड़ दिया और आपसी सहयोग से एक टीवी प्रोग्राम 'फर्स्ट एडिशन' और फिर समीक्षाओं पर आधारित एक टेब्लॉयड मैगजीन 'बिब्लियो' निकालने की राह पर बढ़ चले।
अरविंद जी की कुछ ही समय बाद मृत्यु हो गई। पचास के लपेटे में कुशल और ईमानदार बौद्धिकों की मौत की काफी लंबी सूची में इस तरह मेरे लिए वह पहले नाम बने। टाइम्स ग्रुप के वरिष्ठ हिंदी पत्रकारों में मेरा हल्का-फुल्का संपर्क राजकिशोर से था। राजेंद्र माथुर का नाम पटना से ही सुनता आ रहा था, लेकिन मिलने का मौका कभी नहीं मिला। 1991 में हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु का एक राजनीतिक आयाम भी था, जिस पर अभी बात नहीं हो सकती।
अक्टूबर-नवंबर 1990 के ही किसी दिन मैं रघुवीर सहाय से मिलने उनके घर गया। मेरे प्रधान संपादक महेश्वर ने उनसे कॉलम लिखवाने के लिए कहा था। रघुवीर सहाय से मेरी मुलाकात बहुत अच्छी नहीं रही। उनके बारे में मेरी राय एक आत्मलीन खड़ूस बूढ़े जैसी ही बनी। इसके महीने भर के अंदर ही उनके मरने की खबर आई और उनसे हुई कुल दो मुलाकातों में दूसरी केवल उनकी निर्जीव देह से ही हो सकी।
बहरहाल, मेरी समझ इतनी मैच्योर होने में पूरे दस साल लगे कि मैं रघुवीर सहाय के बारे में अपनी राय बदल सकूँ और घंटे भर की उस एकमात्र बातचीत में उनकी कही बातों का कोई ढंग का मतलब निकाल सकूँ। हुआ यह कि साउथ दिल्ली की एक बिल्कुल ताजातरीन हाउसिंग सोसाइटी प्रेस एन्क्लेव में उनके खाली-खाली से फ्लैट में पहुँचकर उन्हें मैंने अपना परिचय एक पोलिटिकल होलटाइमर के रूप में दिया तो पहला सवाल उन्होंने मुझसे यही किया कि क्या मैंने लोहिया को पढ़ा है। मैंने कहा - बस, थोड़ा सा। रघुवीर सहाय इतना सुनते ही हत्थे से उखड़ गए - 'आप खुद को होलटाइमर कहते हैं, देश बदलना चाहते हैं, लेकिन लोहिया को नहीं पढ़ा है?'
फिर मैंने उनसे मिलने के मकसद के बारे में बताया। पूछा - 'क्या आप जनमत के लिए आठ-नौ सौ शब्दों का एक साप्ताहिक कॉलम लिख सकते हैं।' उन्होंने कहा कि जनमत और आईपीएफ का नाम तो उन्होंने सुन रखा है और कॉलम लिखना भी पसंद करेंगे, लेकिन इसके लिए पैसे कितने मिलेंगे। उस समय तक जनमत में लिखने के लिए किसी को पैसे तो नहीं ही दिए गए थे, इस बारे में कभी सोचा भी नहीं गया था। कम से कम मेरे लिए तो यह बात कहीं राडार पर भी नहीं थी। उनकी माँग से मैं खुद को सकते की सी हालत में महसूस करने लगा और बात जारी रखने के लिए उनसे पूछ बैठा कि कॉलम के लिए वे कितने धन की अपेक्षा रखते हैं।
रघुवीर सहाय जैसा संवेदनशील और कुशाग्र व्यक्ति मेरे शब्दों में मौजूद अनमनेपन को ताड़े बिना नहीं रह सकता था। उन्होंने कहा, आप अपने एडिटर या मालिक, जो भी हों, उनसे बात करके बताइएगा। साथ में यह भी पूछा कि आप लोगों को भी तो काम के लिए कुछ मिलता होगा, फिर मुझे क्यों नहीं मिलना चाहिए। मैंने कहा, मुझे तो कुछ भी नहीं मिलता, न मैंने कभी इस बारे में सोचा। उन्होंने कहा, 'लेकिन कहीं रहते तो होंगे, खाते तो होंगे, इधर-उधर आते-जाते तो होंगे।' मैंने कहा, पार्टी ऑफिस में रहता हूँ, वहीं बनाता-खाता हूँ, हर महीने खर्चे के लिए सौ रुपये मिलते हैं। कभी कम पड़ जाते हैं तो पहले भी माँग लेता हूँ, बचे रह जाते हैं तो कह देता हूँ कि अभी काम चल रहा है, बाद में ले लूँगा।
रघुवीर सहाय उस वक्त फ्लैट में तनहा अकेले थे। उनकी पत्नी की शायद मृत्यु हो चुकी थी। बेटियाँ अपने-अपने घर जा चुकी थीं। दूरदर्शन में काम करने वाली एक बेटी उनके साथ रहती थीं लेकिन वे उस वक्त ड्यूटी पर थीं। तीन-चार साल पहले उन्हें टाइम्स ग्रुप से बाहर आना पड़ा था। कवि वे तब भी थे, लेकिन हिंदी के साथ जुड़ा अफसर कवि का टैग उनसे हट चुका था। बाद में दूरदर्शन, रेडियो या अखबार में अपनी हैसियत के बल पर काव्य जगत पर छाए कुछ और कवियों से मेरी मुलाकात हुई और इन पदों से हटने के बाद उनके आभामंडल का उतरना भी देखा। कौन जाने ऐसा ही कुछ पिछले कुछ सालों से रघुवीर सहाय के साथ भी हो रहा हो, जिसने उन्हें जरूरत से ज्यादा चिड़चिड़ा और आग्रही बना दिया हो।
किसी कवि से उसकी कविताओं को जाने बगैर मिलने से बड़ी कृतघ्नता और कोई हो नहीं सकती। काव्य व्यक्तित्व के प्रति अगले का अज्ञान कोई मायने ही न रखे, इसके लिए कवि का त्रिलोचन जैसा कद्दावर होना जरूरी है, जो शायद रघुवीर सहाय नहीं थे। लेकिन उनके पास खरेपन की शक्ति थी और भव्यता का कवच-कुंडल छोड़ कर किसी से भी मिल पाने की अद्भुत क्षमता थी। उनसे मिलने के बमुश्किल छह साल बाद मुझे भी पैसे-पैसे के बारे में सोचना पड़ा और लिखवा कर पैसे न देने वालों के लिए जुबान से कटु वचन न सही, दिल से बद्दुआएँ जरूर निकलीं। लोगों के बारे में झट से राय बना लेने की दुष्प्रवृत्ति न होती तो शायद रघुवीर सहाय से मिलने के एक-दो मौके मुझे और मिले होते।
इस दौर में मेरे लिए सबसे ज्यादा यादगार मौका चंडीगढ़ में जस्टिस अजित सिंह बैंस से मिलने का था। अपने लिए सिरे से अनजाने एक शहर में अनजानी जुबान वालों से रास्ता पूछते हुए आप एक घर के सामने पहुँचते हैं। घंटी बजा कर एक ऐसे बुजुर्ग आदमी के ड्राइंग रूम में उससे मिलने जाते हैं, जिसका नाम कई सालों से सुनते आ रहे हैं और जिसका मन ही मन बहुत सम्मान भी करते हैं। जैसे-तैसे करके आप उससे बात शुरू करते हैं और दूसरे ही वाक्य में वह आप पर चीखने लगता है - 'यू ब्लडी स्काउंड्रल्स... यू बर्न्ट अस पुटिंग बर्निंग टायर्स अराउंड अवर नेक्स... ट्राइड टु डिमॉलिश अवर रेस... हमारे केश नोच लिए... नस्लकुशी करनी चाही हमारी... भाड़ में गया तुम्हारा देश... ले जाओ अप्पणा देश... हमें नीं रैणा यहाँ।'
और इससे काफी मिलता-जुलता दूसरा मौका महज तीन दिन बाद इसी पंजाब यात्रा के दौरान आया। अमृतसर युनिवर्सिटी में पार्टी के एक पुराने साथी संधू ने अपने एक मित्र, एक स्थानीय नक्सली ग्रुप के कार्यकर्ता रहे केमिस्ट्री के रीडर किन्हीं सिंह से कराई। जैसे ही उन्हें मेरे वैचारिक रुझान का पता चला, वे मेरे ऊपर लगभग टूट ही पड़े - 'तुम लोग साले गोर्बाचोव के चमचे... लिथुआनिया में टैंक चलवा दिए... यहाँ इंडिया में भी टैंक चलाना चाहते हो पंजाब पर...।'
1984 के दंगों के बाद से सिखों के मन में बैठी दहशत और इससे जुड़ी घृणा से मैं परिचित था, लेकिन पंजाब में इसका सामना मुझे इतने तीखेपन के साथ करना पड़ेगा, इसका कोई अंदाजा नहीं था। यह 1990 का दिसंबर और 1991 का जनवरी था - एक हफ्ता इधर, एक उधर। इस वक्त भी पंजाब में खालिस्तानी मूवमेंट का असर कम नहीं हुआ था। गैर-सिखों के बसों से निकाल कर मारे जाने की खबरें हर दूसरे-तीसरे दिन अखबारों में आ ही जाती थीं। लेकिन सब कुछ के बाद भी मैं पंजाब में था और जस्टिस बैंस जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ता और अपनी विचारधारा के एक व्यक्ति से इतनी अपेक्षा तो करता था कि वे मुझे सिखों के जनसंहार का दोषी नहीं मान लेंगे।
अफवाहों की पत्रकारिता
अक्टूबर 1990 से मार्च 1991 के बीच की घटनाओं का सीक्वेंस पकड़ने में मुझे सबसे ज्यादा परेशानी होती है। फ्लैशेज की शक्ल में चीजें याद आती हैं। बड़ा कन्फ्यूज्ड किस्म का समय था। मुलायम सिंह यादव को यूपी में मंडल का सबसे ज्यादा फायदा मिला और कमंडल विरोध का सबसे ज्यादा श्रेय भी। पिछले कुछ सालों में जो लोग मंडल-मंदिर के फॉर्मूले से भारतीय राजनीति को देखने के आदी हो चले हैं, वे इसके आधार पर इस नतीजे तक पहुँच सकते हैं कि मुलायम सिंह वीपी सिंह के काफी करीबी रहे होंगे। लेकिन सचाई यह है कि जनता दल के भीतर वीपी सिंह को सबसे ज्यादा विरोध मुलायम सिंह का ही झेलना पड़ा - मंडल आने के पहले भी और इसके बाद भी।
संसद में वीपी की सरकार से बीजेपी की समर्थन वापसी के बाद जनता दल के दफ्तर पर कब्जे के लिए पार्टी के वीपी और चंद्रशेखर गुटों के बीच बने जबर्दस्त तनाव की याद भी मुझे है, जिसमें वीपी की सारी मंडल छवि के बावजूद यूपी के ज्यादातर बैकवर्ड नेता बरास्ते मुलायम चंद्रशेखर गुट के साथ खड़े थे, जबकि इलाहाबाद युनिवर्सिटी में ब्राह्मण गुंडई के पुरोधा समझे जाने वाले कमलेश तिवारी जैसे नेता जयपाल रेड्डी के बगल में खड़े होकर वीपी गुट की तरफ से हाँफ-हूँफ करते हुए गालियाँ बक रहे थे।
पता नहीं इसके पहले या इसके बाद, शायद इसके पहले ही, 30 अक्टूबर को मैं लखनऊ में था। अरुण पांडे (फिलहाल न्यूज 24 के इनपुट एडिटर) और मैं हजरतगंज चौराहे पर खड़े थे। बीजेपी के लोग अयोध्या में विवादित स्थल पर लगी घेरेबंदी और कारसेवकों को फैजाबाद पहुँचने से रोके जाने के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। वहाँ से खबरें आनी अभी तक शुरू नहीं हुई थीं लेकिन अफवाहों की चक्की रात से ही चल रही थी। अचानक भीड़ उग्र हो गई। चौराहे पर तोड़फोड़ शुरू हो गई। पुलिस लाठियाँ चलाने लगी और भीड़ पत्थर। वहाँ खड़े बाकी पत्रकारों की तरह हम लोग भी आड़ खोज रहे थे।
तभी अरुण के परिचित, लगभग रोज ही कॉफी हाउस में उनके साथ उठने-बैठने वाले एक युवा पत्रकार ने सड़क के उस पार से नारा सा लगाते हुए अरुण और उनके साथ खड़े मुझे ललकारा - 'कहो कटुआप्रेमी, वहाँ आड़ में क्या कर रहे हो।' अचानक समझ में नहीं आया कि अब हम लोग पुलिस से खुद को बचाएँ या भीड़ से। लगा कि ऐसी ही है पत्रकारिता की लाइन, जहाँ आप कभी नहीं जान पाते कि कौन क्या है और किसके लिए काम कर रहा है।
दोपहर बाद से अखबारों के दफ्तरों में संख्याओं का खेल शुरू हुआ - यह कि अयोध्या में 'मुल्ला मुलायम' की चलाई गोलियों से कितने लोग मारे गए। मैंने खुद नहीं देखा, लेकिन बाद में कवि और संपादक वीरेन डंगवाल से उस दिन के किस्से सुने। एजेंसियों ने पाँच लोगों के मारे जाने की खबर चलाई थी। लखनऊ के एक अखबार ने शाम को निकाले अपने एक विशेष संस्करण में सीधे ही एक जीरो बढ़ाकर इसे पचास कर दिया था। शाम को उसके प्रतिद्वंद्वी अखबार में संपादक और डेस्क के वरिष्ठ जनों के बीच एक गंभीर बहस चली, जिसका नतीजा यह निकला कि अगर हम अयोध्या कांड को जलियाँवाला बाग कांड जैसा या उससे भी बड़ी घटना बता रहे हैं तो पचास से बात नहीं बनेगी। इस तरह रातोंरात बात सैकड़ों में - पाँच से उछलकर सीधे पाँच सौ तक पहुँच गई।
गालियों से भरे, अतार्किक, सांप्रदायिक लोगों को भी सांप्रदायिक लगने वाले भाषणों का दौर। जातिगत विद्वेष से गले तक भरे हुए लोग, जो मंडलीकृत माहौल में अपने को जाति से ऊपर दिखाने के लिए खुद को ब्राह्मण-ठाकुर के बजाय हिंदू बताने में जुटे थे। एक ऐसा समय, जब आप बिना दस बार सोचे किसी से एक बात नहीं कर सकते थे। ऐसे दौर में बाकी लोगों की तरह मुझे भी कोई छोटी सी जमीन चाहिए थी, जहाँ पाँव टिका कर खड़ा हुआ जा सके।
शायद जनवरी के अंत में पटना पहुँचने के बाद कुछ दिनों के लिए नेपाल गया। वहाँ 1990 के विराट जनांदोलन के बाद पहली बार संसदीय चुनाव होने जा रहे थे। जनमत की तरफ से मैं उस आंदोलन को भी कवर करने नेपाल गया था लेकिन मौका सिर्फ रक्सौल का पुल पार करके बीरगंज जाने भर का मिला। पूरे देश में तोड़फोड़ और पुलिस कार्रवाई का माहौल था। काठमांडू के लिए कोई सवारी मिल पाने का कोई लक्षण अगले कई दिनों तक दिखाई नहीं दे रहा था, लिहाजा वहीं से मुझे वापस लौटना पड़ गया था। इसके अगले कदम के रूप में 1991 की फरवरी में की गई अपनी नेपाल यात्रा के कुछ दिलचस्प किस्से यहाँ प्रस्तुत हैं।
काठमांड़ौ की नाचती कटोरी
मार्च 1990 में जब वहाँ पहला विराट जन विप्लव घटित हुआ, उसके थोड़े ही पहले से मेरा रब्त-जब्त नेपाली समाज के साथ बनना शुरू हुआ था। 1989 में आयोजित जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने के लिए नेपाली भाषा के महत्वपूर्ण कवि मोदनाथ प्रश्रित पटना तशरीफ लाए। उस समय 'समकालीन जनमत' में हम लोगों ने उनकी अद्भुत कविता 'नेपाली बहादुर' प्रकाशित की, साथ में विष्णु राजगढ़िया द्वारा लिया गया उनका विशद साक्षात्कार भी। दरअसल, इसी सामग्री के जरिए हिंदीभाषी वाम हलकों के एक बहुत बड़े हिस्से को पहली बार यह पता चला कि पड़ोसी देश नेपाल में सचमुच रूस, चीन, क्यूबा या वियतनाम जैसी एक क्रांति घटित हो रही है।
मार्च 1990 के जन-विप्लव को कवर करने शायद विष्णु राजगढ़िया को ही नेपाल भेजा जाता लेकिन उस समय वे कुछ महीनों के लिए जनमत का काम करने दिल्ली चले गए थे। उनकी अनुपस्थिति में यह जिम्मा मुझे मिला। पटना से रक्सौल पहुँचकर मैं जैसे-तैसे बीरगंज भर पहुँच पाया। वहाँ परिवहन ही नहीं, समूची व्यवस्था चरमराई हुई थी और बदअमली के बीच नेपाली फौज की टुकड़ियाँ जगह-जगह मार्च कर रही थीं।
मैंने सीमा नाके पर आवाजाही बंद होने से ठीक पहले तक अपनी तरफ से भरसक कोशिश की। औरतों और, अपने पास मौजूद पूरे के पूरे पाँच सौ रुपये लगाकर हवाई मार्ग से निकल लेने तक के जतन किए। लेकिन अंत-अंत तक काठमांडू पहुँचने का कोई जुगाड़ न हो सका। नतीजा यह हुआ कि एक रात रक्सौल में बिताकर बुद्धू वापस पटना लौट आए। दूसरी बार यह मौका लगभग एक साल बाद ही मिल सका।
जन-विप्लव के सामने राजशाही ने - दिखावटी तौर पर ही - घुटने टेक दिए थे। संविधान सभा गठित करने की माँग उसने नहीं मानी लेकिन 1991 के शुरू में प्रतिनिधि सभा चुनाव कराने की घोषणा जरूर कर दी। इस चुनाव को कवर करने के लिए, इसमें विभिन्न राजनीतिक शक्तियों का नजरिया समझने के लिए मैं काठमांडू गया, फिर वहाँ कुछ दिन रुककर पड़ोस के पहाड़ी जिले धादिङ के गाँवों और चट्टी-बाजारों में एक-दो दिन घूमा। इस दौरान टप्पा-टोइयाँ बतियाने भर को नेपाली सीखी और अभी तक चल सकने वाली कुछ दोस्तियाँ बनाईं।
लौटते वक्त रात में ऊँचे पहाड़ी रास्ते पर बस पलट गई और कई किलोमीटर गहरे खड्ड में बिल्कुल जाते-जाते रह गई तो मौत के बहुत करीब पहुँचकर बच निकलने का एक तजुर्बा भी नेपाल की धरती पर ही मिला। ऐसे मौकों पर लोग किस तरह पैनिक में आ जाते हैं, घोर आस्थावान लोग भी अपनी आस्था के साथ कैसा कमीनापन बरतने लगते हैं, यह जानकारी बोनस में मिल गई।
उस यात्रा की डायरी अभी तक मेरे पास सुरक्षित है लेकिन यादें इतनी ठोस हैं कि शायद मुझे उसकी मदद न लेनी पड़े। अभी तो इस अपेटाइजर के साथ आप बस एक-दो दृश्यों का आनंद लें।
सबसे पहले तो 'काठमांडू' का मामला दुरुस्त कर लिया जाए। यूपी-बिहार में लगभग हर जगह मंडप के लिए माँड़ौ शब्द का ही इस्तेमाल होता है। शादियाँ माँड़ौ या मँड़वे में होती हैं। ठेठ हैदराबादी शायर मखदूम की एक गजल में भी दो बदन प्यार की आग में चमेली के मँड़वे तले ही जलते हैं। यज्ञ जैसे आयोजनों के लिए भी लगभग हर जगह माँड़ौ ही छवाया जाता है, वगैरह। यह जो काठमांडू शहर है वह काठ के बने एक बड़े मंडप के इर्द-गिर्द बसा है। उसी के नाम पर शहर का नाम शहरवासियों की जुबान से काठमाँड़ौ निकलता है।
वामपंथी छात्र नेता रोमनी भट्टराई एक शाम मुझे काठमांड़ौ घुमाने ले गए तो मैं उसके स्थापत्य को देखकर दंग रह गया। छत के ऊपर छतवाली पगोडा शैली में बनी काठ की इस भय पैदा करनेवाली इमारत के इर्द-गिर्द मोमो और चाओमीन बेचनेवालों के खोमचे मधुमक्खी के छत्तों की तरह लगे हुए थे, जो ध्यान से इसे देखने भी नहीं देते थे। लेकिन इसके टोंड़े-छज्जों की बनावट ही कुछ ऐसी थी कि नजर बरबस ठहर जाती थी।
हर छज्जा शेर के बदन और बाज के सिर वाले जानवर का था। यह जानवर अपनी भयानक चोंच में ऐसी नंगी औरतों को बाल से पकड़कर उठाए हुए था, जिनका कमर के नीचे का हिस्सा साँप का था। वे औरतें इस तरह उठाए जाने में निश्चय ही आनंद का अनुभव नहीं कर रही होंगी। कलाकारों ने बड़े जतन से उनके चेहरे पर तकलीफ उकेर रखी थी।
व्याख्या के अनुसार इन छज्जों पर नागकन्याओं को निपटाते हुए गरुड़ अंकित हैं और ये करीब साढ़े तीन सौ साल पहले (1768-1770) गोरखा रियासत के राजा पृथ्वीनारायण शाह द्वारा काठमांडू घाटी पर कब्जे को प्रतीकित कर रहे हैं। गोरखे राजा खुद को विष्णु का अवतार बताते रहे हैं। गरुड़ उनका तत्कालीन राजचिह्न हो सकता है - काठमाँड़ौ के छज्जों पर नागवंशी शासकों और किरात जातियों पर उनके कब्जे को दर्शाता हुआ।
बताया जा रहा है कि दस साल से भी ज्यादा लंबा खिंचे और पंद्रह हजार लोगों की जान के ग्राहक बने घनघोर गृहयुद्ध के बाद कुछ समय तक बैलट के रास्ते नेपाल में सत्तारूढ़ रहे माओवादियों की लाल सेना का ज्यादा बड़ा हिस्सा बौद्ध धर्म को मानने वाली लिंबू और मगर जैसी आदिवासी जातियों से ही आया है, जो 'हिंदू राष्ट्र' की बंदिशें ढीली पड़ने के बाद अपना धर्म बौद्ध और अपनी जाति नेवार या किरात दर्ज कराने लगी हैं। प्रतीकों में कहें तो अब नागकन्याओं के बालों पर से गरुड़ की चोंच हमेशा के लिए छूट जाने का वक्त आ गया है।
बहरहाल, काठमाँड़ौ दर्शन के अगले दिन साथी पत्रकार कुंदन अर्याल के साथ गिरिजा प्रसाद कोइराला (जो बाद में एकाधिक बार नेपाल के प्रधानमंत्री बने) के घर की तरफ निकला तो अचानक बादल घिर आए। चारों तरफ पहाड़ों से घिरी काठमांडू घाटी पर तेज-तेज उड़ते हुए घने काले बादलों की तरफ देखने से पता नहीं क्यों ऐसा लगा जैसे मैं एक बहुत बड़ी कटोरी में बैठा हुआ हूँ और वह कटोरी अधर में तेज-तेज नाच रही है। मैंने कुंदन से स्कूटर वहीं साइड लगाने को कहा और कुछ देर नाचती कटोरी में खड़े-खड़े चक्कर खाने के मजे लेता रहा।
कॉमरेड मदन भंडारी के साथ एक शाम
पिछले कुछ वर्षों से पुष्प कुमार दहल 'प्रचंड' नेपाल के सर्वाधिक करिश्माई राजनीतिक व्यक्तित्व बने हुए हैं। लेकिन जहाँ तक सवाल नेपाल में लोकतंत्र के लिए चली लड़ाई का है तो उससे निकले राजनीतिक व्यक्तित्वों में उनका स्थान तीसरा ही माना जाएगा। इस सूची में सबसे ऊँचा मुकाम निस्संदेह बीपी कोइराला का है, जिन्होंने 1950 में राणाशाही के खिलाफ लोकतांत्रिक शक्तियों के संघर्ष का नेतृत्व किया, हालाँकि इस लड़ाई का अंत वहाँ राजाशाही की पुनर्स्थापना में हुआ।
इस सूची में दूसरा नाम 1990 में उभरकर आए वामपंथी नेता मदन भंडारी का लिया जाना चाहिए, जिनकी 1993 में एक रहस्यमय कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई। 1990 का जन-विप्लव पूरी तरह मदन भंडारी की संगठन और आंदोलन क्षमता की ही उपज था। 1986 में उन्होंने भारत के नक्सली आंदोलन से प्रेरित पार्टी सीपीएन (एमएल) की कमान सँभाली थी और चार साल के अंदर देश भर में इसका इतना मजबूत ढाँचा खड़ा कर दिया था कि फरवरी 1990 में शुरू हुआ प्रदर्शनों का सिलसिला राजशाही फौज के हमलों के सामने टूट-बिखर जाने के बजाय लगातार मजबूत ही होता गया। अंदरखाने नेपाली कांग्रेस के लोग भी यह मानते थे कि पुरानी काट के कम्युनिस्टों या कांग्रेसी नेताओं में दमन के सामने टिकने की सलाहियत मौजूद नहीं थी।
मुझे इस बात का संतोष है कि 'जनमत' के लिए पत्रकारिता करते हुए मुझे कॉ. मदन भंडारी के साथ एक बार लंबी बातचीत और दो-तीन बार छिटपुट मुलाकात का मौका मिला।
पूरी दुनिया के वाम आंदोलन के लिए 1989 से 1992 तक का समय चरम हताशा का था। गोर्बाचेव के ग्लासनोस्त-पेरेस्त्रोइका की परिणति हर जगह समाजवाद की सीवनें उधड़ने के रूप में दिखाई पड़ रही थी। विचारधारा की दृष्टि से इतने तकलीफदेह दौर में ही नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के महासचिव कॉ. मदन भंडारी दक्षिण एशियाई क्षेत्र में समाजवादी उम्मीदों के ध्रुवतारे की तरह उभरे थे।
मुझे याद है, यह मेरी नेपाल यात्रा का तीसरा दिन था। मदन भंडारी नेपाल के सुदूर पश्चिमी जिले झापा से काठमांडू वापस लौटे थे। वहाँ बाघ बाजार में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल के साथ सीपीएन (एमएल) के विलय से अस्तित्व में आई पार्टी सीपीएन (यूएमएल) का केंद्रीय कार्यालय था। वहीं ढलती शाम के धुंधलके में उनके साथ मेरी पहली मुलाकात हुई थी। दुआ-सलाम, हालचाल के बाद औपचारिक बातचीत के लिए मैंने कलम-कागज निकाला तो उन्होंने कहा, 'छत पर चलिए, वहीं आराम से बात करते हैं। अक्षरशः उतारने की कोई जरूरत नहीं है। आप मेरी पोजीशन ठीक से समझ लीजिए और सिर्फ मेन प्वाइंट्स दर्ज करते जाइए। बाद में जैसे चाहे उसे लिख लीजिएगा।'
कॉ. मदन भंडारी उस समय चालीस-पैंतालीस की पकी जवानी वाले खुशनुमा आदमी थे। जेब में रखी स्टील की चुनौटी मे से मोतिहारी वाली कटुई खैनी निकाल कर हथेली पर रगड़ने के बाद चार फटका मारकर जब उसे होंठ के नीचे दबा लेते थे तो और भी खुशनुमा हो जाते थे। उनके लहजे में वैचारिक तीक्ष्णता के अलावा धर के दरेर देने वाला एक ठेठ बनारसी ठसका भी था, जो शायद बीएचयू में अपनी पढ़ाई के दौरान उन्होंने हासिल किया था।
बाकी लाइन-पोजीशन समझ लेने के बाद मैंने उनसे पूछा कि पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी तो आर्मचेयर कम्युनिस्टों की ही मानी जाती है, उससे एका कब तक चलेगा। उन्होंने कहा कि 'यह तो सही है कि उनका कोई नेता जमीन से नहीं जुड़ा है, न ही कोई होलटाइमर है, लेकिन उनमें से कई की अपने-अपने इलाकों में ईमानदार वामपंथी पहचान है। सबसे बड़ी बात यह कि हमें संघर्ष पर भरोसा करना चाहिए। संघर्ष हर किसी को बदल देता है, इन्हें भी बदल देगा।'
फिर पूछा कि राजाशाही का क्या करेंगे, कम्युनिस्ट विचारधारा में राजा के लिए जगह कहाँ बनती है। भंडारी बोले कि 'राजा को फौज और नौकरशाही पर से नियंत्रण छोड़ना होगा। वे एक सम्मानित नेपाली नागरिक की तरह रह सकते हैं, लेकिन ज्यादा तीन-पाँच करेंगे तो हम उन्हें हटा देंगे और भारत की तरह यहाँ भी कोई चमार-धोबी-पासी राजा चुना जाने लगेगा।'
मुझे उनकी यह बात बुरी तरह खटकी। एक रेडिकल कम्युनिस्ट के साथ इस तरह की जातिगत शब्दावली का कोई मेल नहीं बनता था। लेकिन उस समय उन्हें टोकने के बजाय मैंने सोचा कि शायद अपनी तरफ से ये ठेठ मुहावरे में एक ऑबविअस सी बात ही कह रहे हैं, लिहाजा फाइनल कॉपी तैयार करते वक्त साक्षात्कार से इसे निकाल दूँगा।
आगे मैंने पूछा कि अगर राजा इस सबके लिए तैयार न हों और आंदोलन का ज्वार थमने के बादशाही फौज आप लोगों पर टूट पड़े तो उससे निपटने के लिए आपकी तैयारी क्या है। उन्होंने कहा कि 'राजा बिल्कुल ऐसा कर सकते हैं, लेकिन हमें अपनी जनता पर भरोसा है। एक बार हमने उन्हें अपनी ताकत दिखा दी है, जरूरी हुआ तो आगे और भी जबर्दस्त तरीके से दिखा देंगे। जहाँ तक सवाल तैयारी का है तो जनता के पास लड़ने के अपने हथियार होते ही हैं। हमारे पास एक मजबूत संगठन है। लड़ाई के लिए जरूरत पड़ी तो आगे और हथियार भी आ जाएँगे।'
उनकी ये बातें आंदोलन, संगठन और संघर्ष की मेरी निजी समझ से काफी अलहदा थीं। लेकिन वहाँ क्रॉस करने की न कोई गुंजाइश थी, न ही इसका कोई औचित्य था। इसके ठीक बाद कॉ. मनमोहन अधिकारी (जो बाद में नेपाल के प्रधानमंत्री बने) से भी वहीं छत पर ही बात हुई। वे नेपाल की पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी से आए हुए थे। किसी दुनिया देखे बुजुर्ग कम्युनिस्ट की तरह डिप्लोमेटिक ढंग से ही बोले, जिसमें याद रह जाने लायक कुछ नहीं था।
बहसें करने की गुंजाइश यूएमएल के छात्र-युवा संगठनों के नेताओं से ज्यादा बनती थी। खासकर रोमनी भट्टराई एशियन स्टूडेंट्स एसोसिएशन के महासचिव के रूप में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय रहते थे और बहस भी खूब करते थे। उन्होंने एक दिन कहा कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टियाँ अपनी ढपली अपना राग बजाने में यकीन रखती हैं, वर्ना भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन भी नेपाल की तरह आज सत्ता के मुकाम पर पहुँच रहा होता। मैंने कहा, 'डियर रोमनी, मेरे ख्याल से ये चीजें इतनी आसान नहीं हैं, दो-चार साल नेपाल में लोकतंत्र रह जाने के बाद शायद फिर कहीं हमारी मुलाकात हो, तभी इस बारे में बात करना ठीक रहेगा।'
सड़कों पर उन दिनों हाल ही में भूमिगत हुए वामपंथी संगठन मशाल की चर्चा भी हुआ करती थी, लेकिन किसी गंभीर राजनीतिक शक्ति के बजाय मात्र एक उपद्रवी ताकत के रूप में। इसी संगठन का रूपांतरण कुछ साल बाद नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) में हुआ। प्रचंड नाम के किसी व्यक्ति को उस समय तक कोई नहीं जानता था लेकिन पुष्प कुमार दहल की बात कम्युनिस्ट हलकों में जब-तब हो जाया करती थी।
त्रिभुवन युनिवर्सिटी में चल रही एक आमसभा में नेपाली कांग्रेस का एक युवा नेता भाषण दे रहा था - 'देश के सामने तीन खतरे हैं - माले, मसाले, मंडले।' इनमें माले तो सीपीएन (यूएमएल) के लिए था, मसाले मशाल ग्रुप के लिए और मंडले राजशाही समर्थक मंडलियों के लिए, जिन्हें मंडल के नाम से जाना जाता था। नेता का दावा था कि ये तीनों समूह मिलकर राजशाही को बचाने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि उसके खिलाफ संघर्ष का जिम्मा नेपाली कांग्रेसी ने अकेले दम पर सँभाल रखा है।
मेरे नए-नए बने मित्र, फ्रीलांस पत्रकार कुंदन अर्याल मुझे मशाल ग्रुप के दफ्तर भी लिवाकर गए। यह एक तीन मंजिला इमारत का कमरा था, जिस पर ताला पड़ा हुआ था। पान की पीकों से लाल हुई दीवारों के इर्द-गिर्द चक्कर काट रहे एक नौजवान से कुछ खुसुर-पुसुर करके कुंदन ने आखिरकार मुझे मशाल के एक संपर्क सूत्र से मिलवा ही दिया।
उन सज्जन ने मुझे मशाल ग्रुप के कुछ डॉक्युमेंट्स दिए और यूएमएल के साथ अपने बुनियादी अंतरों के बारे में बताया। मुझे लगता था कि ये बिहार में सक्रिय पार्टी यूनिटी और एमसीसी किस्म के लोग होंगे - हर हाल में ठेठ चीनी ढंग से ही क्रांति करने के लिए प्रतिबद्ध। लेकिन बातचीत के बाद मेरी यह धारणा गलत साबित हुई। मुझे लगा कि नेपाल के हालात में इन लोगों की वैचारिक तैयारी बेहतर है।
आखिर यह कैसा जनतंत्र था, जिसका कोई संविधान नहीं था। जिसमें सेना और समूची नौकरशाही की वफादारी राजा के प्रति थी। जिसमें राजा के हाथ में इसका पूरा अधिकार था कि वह किसी को भी प्रधानमंत्री बना दे। संसद छह महीने के अंदर अविश्वास प्रस्ताव पारित कर के उसे खारिज जरूर कर सकती थी, लेकिन इतनी अवधि में संख्याओं का कोई भी खेल खेला जा सकता था। ऐसे जनतंत्र पर आँख मूँदकर यकीन करना, अलग से अपना कोई भूमिगत संगठन, कोई फौजी तैयारी न रखना मेरे ख्याल से सीपीएन (यूएमएल) और उसके सिद्धांतकार कॉ. मदन भंडारी की भारी भूल थी।
बस की छत पर ईलू-ईलू
ठहरने का कोई पक्का ठिकाना था नहीं। नेताओं से टाइम लिया और दस बजे के आसपास ठीहे से निकल पड़े। लेकिन बीच के बड़े-बड़े वक्फों का क्या करें। इन समयों में काठमांडू की सड़कों पर बेमतलब टहलते हुए पहला कल्चरल शॉक वहाँ की मांस की दुकानें देखकर लगा। अपने यहाँ कटे हुए सुअर, बकरा, मुर्गा और मछली खुले में टाँगकर बेचे जाते हैं लेकिन भैंस जैसे बड़े जानवर बूचड़खाने की बंद दीवारों के भीतर ही काटे जाते हैं। बड़े का मीट आप यूँ ही सड़क पर खड़े-खड़े खरीद नहीं सकते। लेकिन काठमांडू की सड़कों पर हर आठवीं-दसवीं दुकान भैंसे के मांस की थी। मोटे-मोटे हुकों पर फुल साइज कटे और उधड़े हुए भैंसे लटके नजर आते थे।
इस हिंदू राष्ट्र में बेचारे भैंसों के पीछे इतनी बुरी तरह हाथ धोकर कौन पड़ा रहता है? पूछने पर पता चला कि बौद्ध धर्म मानने वाली नेपाली नेवार जाति का बुनियादी खाना भैंसे का मांस ही है। यह सूचना भी जरा चौंकाने वाली ही थी, क्योंकि बौद्ध धर्म के साथ दिमाग में अहिंसा वगैरह के पूर्वग्रह मजबूती के साथ जुड़े हुए हैं। फिर टहलते हुए एक दिन तीसरे पहर मैं काठमांडू के अत्यंत पुराने बौद्ध मंदिर की तरफ चला गया। यह एक ढलवाँ सी जगह पर बना है, जिसका नाम मुझे याद नहीं।
भारत में तंत्र का उदय बौद्धधर्म की महायान शाखा से हुआ बताया जाता है। एक नजर में यह एक अटपटी प्रस्थापना लगती है। बौद्ध धर्म की छवि हमारे मन में एक पाखंडविरोधी तार्किक प्रणाली की है, जबकि तंत्र रहस्यों के आवरण में लिपटी हुई विशिष्ट कर्मकांडी व्यवस्था है। यह अटपटापन काठमांडू के उस बौद्ध मंदिर के भीतर प्रवेश करने के तत्काल बाद समाप्त हो गया।
वहाँ ठेठ पहाड़ी नैन-नक्श वाली पीतल या कांसे की चमकती बुद्ध मूर्ति के नीचे घी की जोत जल रही थी। मूर्ति की दैनंदिन सफाई तो धर्म का हिस्सा है, लेकिन जिस दिए में अखंड जोत जलाई गई थी, उसकी सफाई शायद कई सौ साल पहले मूर्ति की स्थापना के समय से ही नहीं हुई थी। नतीजा यह था कि यह दिए के बजाय बहुत ही मोटे और बड़े, काले मोमियाए खप्पर जैसा दिखने लगा था।
दिए के अलावा वहाँ ढेरों अगरबत्तियाँ भी जल रही थीं, जिनका धुआँ भी शायद कई सौ साल से उस सीलन भरे गुफानुमा मंदिर में घुमड़ रहा था। अच्छा-भला आदमी मंदिर में जाते ही ट्रांस में पहुँचकर अल-बल बकने लगे, ऐसी वहाँ की स्थिति थी। बौद्ध धर्म का यह ठेठ नेपाली प्रकार मुझे तांत्रिक अनुष्ठानों या औघड़ पंथ के बहुत ज्यादा करीब लगा।
मंदिर से बाहर निकल कर जूते पहन रहा था कि पीछे से आवाज सुनाई पड़ी, 'हलो भाई साहब, आप इंडिया से आए हैं?' मैंने घूमकर देखा तो वहाँ एक दुबले-पतले साँवले से नौकरीपेशा जैसे लगते सज्जन खड़े थे। बोला, 'जी, बताइए।' वे बोले, 'चलिए ऊपर चलकर कहीं बैठते हैं।' एक दिन पहले उन्होंने मुझे बाघ बाजार में एमाले के दफ्तर में देखा था। पता नहीं कैसे उन्हें लग गया था कि मैं उनकी बात समझ सकता हूँ। नाम मुझे उनका याद नहीं रहा, लेकिन वे मुझसे बहुजन समाज पार्टी का संपर्क सूत्र और उसका लिटरेचर मिलने की व्यवस्था के बारे में जानना चाहते थे। उन्होंने बताया कि वे दलित हैं और नेपाली समाज में दलित-आदिवासी तबकों की बहुत बड़ी संख्या होने के बावजूद यहाँ की राजनीतिक व्यवस्था में उनका कोई पुर्साहाल नहीं है।
मैंने उत्सुकता जताई कि पंचायती व्यवस्था में ऐसा रहा हो, यह बात तो समझ में आती है, लेकिन नई संसदीय व्यवस्था में तो अभी कोई चुनाव भी नहीं हुआ है, फिर ऐसी राय उनकी क्यों बनी हुई है। उन्होंने कहा, सब नेता यहाँ सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, निचली जातियों को टिकट देने या नेता बनाने की बात कहीं से भी इन के एजेंडा पर नहीं है। मेरे पास कोई तथ्य नहीं था, न कहने को कोई बात थी, सो मैं गुटुर-गुटुर उन्हें सुनता रहा। भारत में बीएसपी के केंद्रीय कार्यालय का पता-ठिकाना मेरे पास था नहीं, लिहाजा औपचारिकतावश उनके साथ नाम-पते का लिखित आदान-प्रदान किया, इस वादे के साथ कि बाद में जानकारी जुटाकर उन्हें सौंप दी जाएगी।
इन तीन-चार दिनों में बड़े नेताओं से मिलने की मेरी चाट खत्म हो चुकी थी। मधेसियों का प्रतिनिधित्व करने वाली नेपाली सद्भावना पार्टी और नेपाली वर्कर्स ऐंड पीजैंट्स पार्टी के नेताओं से अपनी मुलाकात की चर्चा मैं यहाँ नहीं करने जा रहा हूँ, अलबत्ता मधेसियों से जुड़े एक रोचक प्रसंग का जिक्र शायद आगे निकल आए।
शीर्ष नेपाली कांग्रेस नेता गिरिजा प्रसाद कोइराला के साथ हुई बातचीत का भी कोई टुकड़ा शायद प्रसंग आने पर उठ आए, लेकिन वे इतने डिप्लोमेटिक हैं कि मेरे अंतस पर उनकी रत्ती भर भी छाप नहीं पड़ी। अलबत्ता मनीषा कोइराला की पहली फिल्म 'सौदागर' का गाना ईलू-ईलू उन दिनों हाल-हाल में ही आया हुआ था। गिरिजा बाबू उनके ताऊ हैं, यह जानकारी ठीक उनसे मुलाकात के दिन ही प्राप्त हुई। नतीजा यह हुआ कि बातचीत के दौरान और इसके कई दिनों बाद तक कान में ईलू-ईलू ही गूँजता रहा।
तीन-चार दिनों में ही लगने लगा था कि काठमांडू हर मायने में दिल्ली या पटना जैसा ही है। यहाँ रहकर नेपाली समाज की नस-नाड़ी ज्यादा पकड़ में नहीं आएगी। मैंने एमाले और नेपाली कांग्रेस के नेताओं से किसी पास के जिले के संपर्क सूत्र माँगे, जहाँ से चुनाव प्रचार का जमीनी हाल-चाल देखकर दो दिन में काठमांडू लौटा जा सके।
सोच-विचार कर धादिङ जाने पर सहमति बनी। निर्दलीय पंचायती व्यवस्था में वहाँ से चुने जानेवाले कांग्रेसी मिजाज के एक पंच और एमाले के स्थानीय कार्यालय का संपर्क सूत्र लेकर मैं वहाँ के लिए रवाना हुआ। काठमांडू से यह जगह करीब साठ किलोमीटर दूर है। वहाँ से आस-पास के गाँवों में निकला जा सकता था। जिले के ज्यादातर लोग भारत में जाकर पहरेदारी या मेहनत-मजूरी करने वाले थे, लिहाजा थोड़ी-बहुत हिंदी बोल-समझ सकते थे।
काठमांडू से धादिङ की बसें बीरगंज और काठमांडू के बीच चलनेवाली डीलक्स बसों जैसी नहीं, अपनी लोक लबसों जैसी, या उनसे भी ज्यादा डग्गेमार हुआ करती हैं। जैसे-तैसे एक बाजार में पहुँचकर पैर सीधे करने उतरा तो मेरे चढ़ने से पहले ही भीड़ ने घुसकर दरवाजा जाम कर दिया। फिर बस में जबरिया घुसने का इरादा छोड़कर मैंने दिल में दबा अपना एक बहुत गहरा अरमान पूरा करने का फैसला किया। ऊपर-नीचे फर्न जैसी घूमी हुई हरियर कचर वनस्पतियों से भरे दुर्गम पहाड़ी रास्ते में बस की छत पर बैठकर सफर करने का अरमान!
यह काम कहने में जितना आसान है, करने में उतना ही मुश्किल था। हालत यह थी कि रास्ते के एक तरफ जितना ऊँचा पहाड़, दूसरी तरफ उतना ही गहरा खड्ड। छत पर सामान रखने के लिए बने बाड़े की छड़ें मैं मजबूती से पकड़े हुए था, फिर भी नीचे झाँकने पर लगता था जैसे कोई पकड़कर बुरी तरह खींचे लिए जा रहा है। बार-बार लगता कि बस ने जरा भी झटका खाया तो मन ही मन ईलू-ईलू करते अपन लुगदी बने किसी खड्ड में पड़े होंगे और गाँव-देस तक इसकी खबर पहुँचने में भी महीनों लग जाएँगे। घंटे भर में दिमाग दुरुस्त हो गया। चक्कर जाने में कई घंटे और लगे।
असूर्यंपश्या होलटाइमर
एक छोटे से झरोखे से आती उगते सूरज की रोशनी सीधी आँख पर पड़ रही थी। यह बाँस और लकड़ी की बनी चूल्हे और सिगड़ी के धुएँ में लंबे समय तक सीझकर काली हो चली दुछत्ती या कोठे जैसी कोई जगह थी, जिसमें मेरे जैसा दरमियानी कद का आदमी भी अचके में खड़ा हो जाने पर सिर फुड़ा सकता था। इसी जगह सुबह-सुबह मेरी आँख खुली थी। थोड़ी देर तक तो कुछ समझ में ही नहीं आया। फिर ध्यान पड़ा कि कल शाम नेकपा (एमाले) के धादिङ जिला कार्यालय से बहुत लंबा, थकाऊ पहाड़ी रास्ता पैदल तय करके एक वरिष्ठ कम्युनिस्ट कार्यकर्ता के साथ मैं यहाँ पहुँचा था और जैसे-तैसे दो-चार कौर मुँह में फेंककर कोठे पर अचेत सो गया था।
रास्ते में कई नदियाँ पड़ी थीं, या शायद एक ही नदी को कई बार पार करना पड़ा था। बमुश्किल पंद्रह-बीस फुट चौड़ी लेकिन बहुत तेज बहने वाली बर्फ जितनी ठंडी उथली जलधाराएँ। ठरते हुए पाँव चिकने पत्थरों पर जरा भी फिसल जाएँ तो आप किसी लकड़ी के लट्ठे की तरह बहते नजर आएँ! सीधी चढ़ाई चढ़ते हुए पहाड़ पर अच्छी-खासी ऊँचाई तक पहुँचना, फिर उतनी ही सीधी उतराई पर लुढ़कते हुए से नीचे आना, फिर थोड़ा सा समतल पार कर के घुटनों तक पैंट चढ़ाए किसी का हाथ पकड़े-पकड़े डरते-काँपते नदी पार करना, फिर थोड़ा समतल, और फिर खड़ी चढ़ाई। यही प्रक्रिया कम से कम तीन बार दुहराई गई। पहले शाम के धुंधलके में, फिर घुप्प अँधेरे में।
बिजली का दूर-दूर तक कहीं नामोनिशान नहीं। ऊँचे पहाड़ों पर बसी बस्तियों में जलती लालटेनों की रोशनी ही दिशा का अनुमान लगाने का अकेला सहारा। साथ चल रहे कार्यकर्ता स्थानीय थे, लेकिन उन्हें भी एक बार एक रास्ते पर कुछ दूर तक आगे बढ़ जाने के बाद वापस आकर दूसरा रास्ता पकड़ना पड़ा था। एक चढ़ाई पर बीच में ही कहीं मामूली लयभंग के साथ लगातार चलने वाली घरड़-घरड़ की आवाज सुनाई दी। मैंने पूछा, यह कैसी मशीन चल रही है। उन्होंने बताया, घराट है। गेहूँ पीसने की ठेठ पहाड़ी टेक्नीक, जो अपने कुमाऊँ-गढ़वाल से अब तकरीबन गायब हो चली है। नदी के किसी ऊँचे बिंदु से नाली निकालकर खड़े गिरते हुए पानी से चक्की चलाई जाती है। कम से कम एक आदमी घराट पर हमेशा मौजूद रहता है। पिसाई? पसेरी भर गेहूँ पर एक पाव आटा।
यह नेकपा (एमाले) के एक पुराने समर्थक परिवार का घर था। रात के घने अँधेरे में इलाका जितना पिछड़ा नजर आ रहा था, दिन की तस्वीर उससे काफी अलग थी। भीतर का हाल चाहे जैसा भी हो लेकिन ऊँचाई पर बना हुआ यह घर भी बाहर से बहुत सुंदर था। चारों तरफ नींबू जैसे पेड़ थे। मैंने पूछा तो लोग बोले सुनतले के पेड़ हैं। सुनतला? पता चला संतरे को पूरे नेपाल में इसी नाम से पुकारा जाता है। हैसियत से लोग खुशहाल किसान नजर आए। संभवतः क्षत्रिय परिवार था। मैंने पूछा पार्टी से संपर्क कैसे हुआ, तो पता चला कि गाँव के स्कूल में पढ़ाने वाले मास्टर साहब ही कम्युनिज्म को इस गाँव और इस घर की दहलीज तक ले आए थे।
थोड़ी ही देर में इस घर से जुड़ा एक और रहस्य खुलना शुरू हुआ। पिछले साल यहाँ पुलिस दबिश देकर गई थी। मार-पीट तो नहीं की गई लेकिन कुर्की-जब्ती कर लेने, घर उजाड़ देने की धमकियाँ जरूर दी गई थीं। वजह? इस घर में नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) की दो होलटाइमर नेत्रियों का वास था। बुआ और भतीजी, दो की दोनों पूर्णकालिक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता। अभी उल्टे पल्ले के साथ सिर पर सफेद साड़ी का पल्लू लिए, कंधे पर झोला लटकाए दोनों तीसरे पहर इलाके में होने वाली एक चुनाव सभा की तैयारी के लिए एक साथ घर से निकल रही थीं।
पचीस-तीस साल की उन महिलाओं का पहनावा-ओढ़ावा देखकर मैं कुछ चकित हुआ। उनके निकल जाने के बाद साथ आए कार्यकर्ता साथी से पूछा कि ये सफेद कपड़े क्यों पहने हुए हैं? उत्साह से दागे गए लाल सलाम के बाद भी चेहरे पर एक अजीब विषाद सा क्यों छाया हुआ है? उन्होंने पहले बात को टालने की कोशिश की, फिर धीरे-धीरे खुले।
पता चला कि नेपाल के भीतरी गाँवों में, कम से कम ब्राह्मण-ठाकुर परिवारों में आज भी निस्संतान विधवाओं को असूर्यंपश्या बनाए रखने का रिवाज है। इस जुबान टेढ़ी कर देने वाले शब्द से अब हम भारतीय जन नावाकिफ हो चले हैं तो यह अच्छा ही है। इसका अर्थ होता है, ऐसी स्त्री, जिसका दर्शन कोई पुरुष तो क्या, खुद सूर्य भी न कर सके। यानी पूरा दिन घर में बंद रहने वाली। कोई निस्संतान विधवा यदि इस नियम का उल्लंघन करती है तो उस परिवार के सामाजिक बहिष्कार की नौबत आ जाती है। सुनते हैं, यह रिवाज पहले भारत में भी था - सती से निचले दर्जे की एक वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में!
कार्यकर्ता ने बताया कि नेपाल में कमउम्र विधवाएँ दिखना आम बात है। रोजी-रोटी के लिए पुरुषों को प्रायः भारत जाकर फौज में या मेहनत-मजूरी की कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। नेपाल में कहीं कोई काम मिल गया तो हालत और खराब रहती है क्योंकि यहाँ तो अभी कार्यस्थल की सुरक्षा की कोई अवधारणा ही नहीं है। उनकी अपेक्षा ज्यादा सुरक्षित उनकी पत्नियों का जीवन इन्हें जीते-जी मार देने का सबब बन जाता है। हालाँकि वे भी इसे मात्र संयोग ही मानते थे कि इस घर में दो जवान विधवा स्त्रियाँ मौजूद थीं, और वे बुआ-भतीजी के रिश्ते के बावजूद लगभग हमउम्र थीं।
गाँव के कम्युनिस्ट मास्टर साहब ने अस्सी के दशक में जब यहाँ सामाजिक जागरण का सिलसिला शुरू किया तो इसकी लौ धीरे-धीरे स्त्रियों तक भी पहुँची। फिर तो यहाँ की असूर्यंपश्या अभिशप्त स्त्रियों ने न सिर्फ सूरज को बल्कि अपने इर्द-गिर्द की धरती और वहाँ रहने वाले इनसानों को भी खुली आँखों देखना शुरू कर दिया। आज यह प्रक्रिया इन दोनों स्त्रियों को होलटाइमर बनाने की हद तक ले आई है और ये पूरे इलाके में जागृति फैला रही हैं।
कॉ. मदन भंडारी के नेतृत्व में नेकपा (माले) ने अपनी धज में यही बुनियादी बदलाव किया था। क्रांति की माओवादी पद्धति का अनुसरण करते हुए हथियारबंद संघर्षों के जरिए खुद को दूर-दराज के इलाकों में 'मुक्त-क्षेत्र' विकसित करने के काम में लगाए रखने के बजाय अस्सी के दशक में उसने एक व्यापक लोकतांत्रिक जनजागरण को अपना एजेंडा बनाया। इसके लिए उच्च शिक्षण संस्थाओं के अलावा शिक्षकों को प्रशिक्षित करनेवाले नॉर्मल स्कूलों में भी उसने अपना काम केंद्रित किया। इन प्रशिक्षण स्कूलों से निकले शिक्षक उसके भूमिगत कार्यकर्ताओं की भूमिका निभाते हुए ग्रामीण नेपाली समाज में परिवर्तन के खमीर बन गए।
लेकिन यह जानने में भी मुझे ज्यादा देर नहीं लगी कि माले (बाद में एमाले) की यह सामर्थ्य ही दरअसल उसकी सीमा भी थी। समाज के उच्चजातीय, मध्यवर्गीय तबकों में एक उदार लोकतांत्रिक चेतना विकसित करने का महत्व जगजाहिर है, लेकिन राजशाही और पूँजी की मिली-जुली ताकत का मुकाबला क्या सिर्फ इस चेतना के जरिए किया जा सकेगा? नवजनवादी क्रांति के लिए समर्पित ग्रामीण सर्वहारा की छापामार टुकड़ियों वाली बात अगर एक तरफ रख दें तो भी आंदोलन को कठिन से कठिन दौर में टिकाए रखने वाला समाज का दलित, उत्पीड़ित मेहनतकश तबका इस जनजागरण केंद्रित उदारवादी एजेंडे से किस हद तक आकर्षित हो सकेगा? उसी दिन तीसरे पहर हुई चुनावी आम सभा में लोगों की उदासीन सी भागीदारी देखकर यह संदेह और भी पुख्ता हो गया।
तीन गाड़ियाँ दो मकान
कुछ बातों पर आप कभी यकीन नहीं कर पाते। यूँ कहें कि उन पर यकीन करने का जी नहीं होता। आपके मन में उनके घटित हो जाने का भय कहीं गहरे दबा होता है। यहाँ तक कि दिन में हजार बार उनके बारे में बात भी करते हैं। फिर भी जब उनके हो जाने की सूचना मिलती है तो इस सूचना से नजरें चुराने की कोशिश करते हैं, बच निकलने की सुरंगें ढूँढ़ते हैं, यहाँ तक कि सूचना लाने वाले को ही खलनायक बना डालते हैं।
उषा तिवारी (जो अब उषा तितिक्षु बन चुकी हैं) नेपाल में 1990 के लोकतांत्रिक जन-विप्लव की संतान हैं। वे अंतरराष्ट्रीय ख्याति की फोटोग्राफर हैं। देश-विदेश में अपनी फोटो प्रदर्शनियाँ लगा चुकी हैं। नेपाल की तराई के एक प्रतिष्ठित परिवार से आती हैं लेकिन हाल-हाल तक अपना आधा समय काठमांडू में और आधा भारत के तमाम शहरों में भटकती हुई गुजारती रही हैं। 1991 की मेरी नेपाल यात्रा के चार-एक साल बाद जब उन्होंने नेपाल के कम्युनिस्ट नेताओं के विचलन और पतन के किस्से बयान करने शुरू किए तो मुझे उनकी एक भी बात पर विश्वास नहीं हुआ।
मैंने कहा कॉ. मदन भंडारी तो अब रहे नहीं, लेकिन मुझे यकीन है कि दुनिया इधर से उधर हो जाए तो भी कॉ. मोदनाथ प्रश्रित जैसा कवि-राजनेता कभी भ्रष्ट नहीं हो सकता। उषा मुझसे उम्र में कम से कम दस साल छोटी होगी, लेकिन मेरी इस बात को उसने कुछ इस तरह हँसी में उड़ाया, जैसे उसके सामने मैं कोई छोटा सा बच्चा होऊँ। 'किस दुनिया में हैं आप? जमीन पर आइए साथी, जमीन पर। मोदनाथ प्रश्रित के पास आज काठमांडू में दो मकान हैं, तीन जर्मन मेक की बड़ी गाड़ियाँ हैं। उनसे मिलने जाएँ तो आसानी से आपकी बात नहीं हो पाएगी!'
मुझे पक्का लगा कि इस लड़की के रिश्ते अब एमाले के साथ अच्छे नहीं रह गए हैं, इसीलिए यह सब बोल रही है। तब तक नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) दो हिस्सों में बँट चुकी थी, लेकिन इस बँटवारे का आधार भी सैद्धांतिक नहीं, नेपाली कांग्रेस के किस गुट के साथ मिलकर सरकार बनाई जाए, या न बनाई जाए, किस्म का ही था। मैंने दूसरे गुट के नेताओं के नाम लेकर टोह लेनी चाही तो उनके बारे में भी उषा की राय उतनी ही कड़वी थी।
इसके कुछ समय बाद मैंने नेपाल पर लगातार नजर रखने वाले आनंदस्वरूप वर्मा से इस बारे में बात की - कुछ इस तरह, जैसे किसी गोपनीय चीज के बारे में बात कर रहा होऊँ। वे भी उषा जितने ही तिरस्कारपूर्वक मुझ पर हँसे - 'कितना बचकाना, सूचनाओं से किस कदर वंचित!'
उसी समय पहली बार उन्होंने मुझे नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के नीतिगत विमर्शों और रणनीतिक फैसलों के बारे में बताया। इससे जुड़े दस्तावेज पढ़ने को दिए। नेपाल में माओवादियों के सशस्त्र संघर्षों की खबरें उस समय तक आनी शुरू हो गई थीं, लेकिन जिस तरह मैं पीपुल्सवार और पार्टी यूनिटी (फिलहाल साथ मिलकर गठित भाकपा-माओवादी) की हथियारबंद लड़ाइयों के क्रांतिकारी महत्व को लेकर आज तक आश्वस्त नहीं हो पाया हूँ, कुछ वैसा ही हाल तब से अभी छह-सात साल पहले तक नेकपा-माओवादी को लेकर भी बना रह गया था।
अपनी इस वैचारिक और संवेदनात्मक जड़ता की कोई ठोस वजह मुझे समझ में नहीं आती। क्या पिछले चार हिस्सों में मैं लगातार नेकपा (एमाले) के वैचारिक विरोधाभासों और उन्हें लेकर अपने मनमें पैदा होने वाले संदेहों का जिक्र नहीं करता आ रहा हूँ? आप चाहें तो इसे मेरे अंदर लगातार दृढ़ होते जा रहे लिबरल पूर्वग्रहों का नतीजा बता सकते हैं, यहाँ तक इसे सवर्ण मध्यवर्गीय सोच की सामान्य परिणति भी कह सकते हैं। अगर आप ऐसा कहते हैं तो मैं एतराज नहीं करूँगा।
लेकिन मेरी समस्या दूसरी है। नेकपा (एमाले) के जिन नेताओं, कार्यकर्ताओं और जनाधार के मुखर लोगों से मैं मिला, वे अपने समाज के सबसे आदर्शवादी, परिवर्तनकामी लोग थे। कम से कम उस समय तक तो भ्रष्टाचार और बेईमानी की कोई झलक उनमें नहीं देखी जा सकती थी। व्यवहार गणित का सीधा सा सवाल है - ऐसे मजबूत लोगों की चेतना और क्रांतिकारी संवेदना को क्षत-विक्षत करने में नेपाल के नवोदित लोकतंत्र को अगर सिर्फ चार साल लगे, तो नेकपा (माओवादी) या किसी भी क्रांतिकारी शक्ति के लंबे समय तक क्रांतिकारी बने रहने को लेकर हम कितने आश्वस्त हो सकते हैं?
अपना मन रखने के लिए इस समस्या को मैं किसी कम्युनिस्ट पार्टी से ज्यादा एक गरीब-पिछड़े देश की विडंबना से जोड़कर देखता हूँ। कोई बहुत बड़ा विश्वास टूटता है तब समाज में गृहयुद्ध आकार लेता है। लेकिन पंद्रह हजार लोगों की जान लेने वाले, दस साल लंबे गृहयुद्ध से निकली माओवादी सरकार भी अपने देशवासियों के भरोसे पर खरी नहीं उतरी तो नेपाल की जनता के लिए भरोसा करने को भला बचता ही क्या है?
अल्लाह… अल्लाह… तेरी माँ की… तेरी बहेन की
हफ्ता बीतते जेब में कुल अस्सी-बयासी रुपये बचे, जो काठमांडू से पटना पहुँचने के लिए 'जस्टफिट' थे। त्रिभुवन युनिवर्सिटी के हॉस्टल से रोमनी भट्टराई मुझे छोड़ने के लिए चले और आखिरी आतिथ्य के रूप में मुगलाई होटल लिवाते गए। इस महिमामंडित ढाबे में खाना बासी और ठंडा था। बस के लंबे पहाड़ी सफर में मांसाहार मुझे सुरक्षित नहीं लगा, लेकिन रोमनी का कहना था कि मीट पेट में रहेगा तो जरा दम दिए रहेगा। पता नहीं क्यों खाते वक्त मुझे लगा कि यह मेरा अंतिम खाना हो सकता है।
बस अड्डे पर विकट कचकच मची हुई थी। शायद छठ या कोई और बड़ा त्योहार था। काठमांडू में नौकरी-चाकरी करने वाले तराई के लोग जैसे-तैसे ठुँस कर बीरगंज और वहाँ से अपने घर जाने के लिए उतावले थे। यहीं पहली बार मेरा साक्षात्कार मधेसियों की आत्मछवि से हुआ।
तराई में रहने वाले हिंदीभाषी नेपाली अब खुद को भारतवंशी कहने लगे हैं, हालाँकि नेपाल में उनकी साझा संज्ञा 'मधेसी' ही है। बस की छत पर सामान पहले चढ़ाने को लेकर दो लोग आपस में लड़ रहे थे। सीट पर मेरी बगल में बैठे हुए सज्जन, जो खुद भी मधेसी थे, कह रहे थे - 'ई साला मधेसिया सब दुनिया में कत्तौं चला जाए, रहेगा हर जगह मधेसिए बन के।' फिर बस छूटने के ऐन पहले बस अड्डे पर रंगदारी करने वाले दो-तीन गँठे-गँठे गोरखे टाइप लोग आए और झगड़ रहे दोनों सज्जनों को गरिया-लपड़िया कर दोनों का सामान बस पर से उतरवा दिया।
इस शहर में मेरा करीबी दायरा कम्युनिस्टों का ही था, लिहाजा यहाँ की पहाड़ी आबादी में मैदानियों के प्रति मौजूद हिकारत से मेरा वास्ता नहीं पड़ा था। यहाँ तक कि सद्भावना पार्टी के गजेंद्र नारायण सिंह जब नेपाली कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी, दोनों में तराई को लेकर मौजूद उपेक्षा का जिक्र करते हुए मधेसियों के हक के लिए लंबी लड़ाई लड़ने का जिक्र कर रहे थे तो मैं उन्हें पर्याप्त गंभीरता से नहीं ले पाया था। लेकिन बस के बाहर हो रहे झगड़े और उसके समाधान को लेकर लगभग नस्लवादी तेवरों वाली पहाड़ी-मधेसी प्रतिक्रियाओं को देख-सुनकर मुझे लगा कि काठमांडू की 'मधेसी' संज्ञा दिल्ली की 'बिहारी' से कहीं ज्यादा निम्न कोटि की है।
बस चलनी अभी शुरू भी नहीं हुई थी कि पीछे से एक सज्जन बोल पड़े, अरे भाई जरा देख लेना पंचर-वंचर तो नहीं है न। ऐसी टिप्पणियों पर ड्राइवरों को उबलते मैंने कई बार देखा है, लिहाजा बस के ड्राइवर ने जब छूटकर उन्हें गाली बकी तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। अलबत्ता बस की हालत कुछ ठीक नहीं लग रही थी। खड़खड़-भड़भड़ कुछ ज्यादा ही हो रही थी। थोड़ा संतोष ही हुआ कि सबसे पहले बस को लेकर ऐसा संदेह जताकर गाली खाने का सुअवसर मुझे नहीं मिला।
हिलती-काँपती बस करीब घंटे भर में काठमांडू की बत्तियों को पीछे छोड़ती हुई हाईवे पर आई और नौ बजे के लगभग ड्राइवर ने भीतरी बत्तियाँ बुझा दीं। मैंने भी कंधे पर लटकाने वाला अपना बैग सामने वाली सीट के पीछे लगी खूँटी पर टाँगा और अपने पैर यथासंभव फैलाकर ऊँघने लगा।
तंद्रा की कुछ लंबी-लंबी बेमतलब कुलाँचें चल रही थीं कि अचानक धड़ाके से टायर फटने की आवाज आई। फिर अचानक रिम के बल गिरी बस जमीन पर घिसटती हुई घूमी और तेज रफ्तार में बाकायदा एक चक्कर खाती हुई पलटकर खड्ड के किनारे खड़ी एक चट्टान से जा टकराई। सारा कुछ ठीक ऐसा ही हुआ या इससे कुछ अलग, मुझे नहीं पता। यह बाद में सहयात्रियों द्वारा किए गए विश्लेषणों का एक संक्षिप्त निचोड़ भर है।
मैं तो बस अपनी सीट से लुढ़ककर दूसरी तरफ की किसी सीट पर बैठे लोगों पर गिरा, जो बेचारे फिलहाल वहाँ कुचले हुए पड़े थे। लाठी चार्जों के दौर का एक सीधा सबक उस समय भी मेरे अवचेतन में था कि जान का खतरा हो तो सबसे पहले सिर बचाना चाहिए। मैंने कुछ पकड़ने का ख्याल छोड़कर दोनों हाथों का कक्कन बाँधा और उसे सिर समेत दोनों कनपटियों को ढककर शरीर को फ्री छोड़ दिया। अब बस के लुढ़कते हुए नीचे जाने का इंतजार ही बचा था।
घोर अँधेरी रात में पता नहीं किस जगह पर ढही हुई, मौत और जिंदगी के बीच झूलती पूरी की पूरी बस बिल्कुल खामोश। सिर्फ जहाँ-तहाँ लोहा घिसटने और शीशा चिटकने की आवाज। थोड़ी देर तक तो समझ में ही नहीं आया कि कोई कुछ बोल क्यों नहीं रहा है।
फिर लगा कि बस अब घिसट नहीं रही है। लुढ़क भी नहीं रही है। यानी कुछ उम्मीद अभी बाकी है। ठीक तभी अपने पीछे से अँधेरे में मैंने एक आवाज आती सुनी - 'अल्लाह... अल्लाह... अरे तेरी मां की... अरे तेरी बहेन की... अल्लाह... अल्लाह'। यह विचित्र सा कलमा सुनकर उस भयानक स्थिति में भी मुझे हँसी आ गई। सच कहता हूँ, उस वक्त मुझे लगा कि मेरा जन्म ऐसे ही अवसरों के लिए हुआ है।
दरवाजे वाली दीवार फिलहाल छत बनी हुई थी। उससे अब हल्का आसमानी उजाला भी भीतर आने लगा था। हुआ कि पहला काम तो यही किया जाए कि बस का शीशा तोड़कर लोगों को बाहर निकाला जाए। अपने सामने वाली सीट से टँगा मेरा बैग फिलहाल मेरे सिर से टकरा रहा था। छूकर इत्मीनान हो गया कि यह मेरा ही बैग है। फिर लंगूरों की तरह लटकते-पटकते सामने वाले शीशे तक पहुँचा तो वह वैसे ही चिटका हुआ था। शक्लें किसी की पहचान में नहीं आईं, लेकिन कम से कम चार-पाँच लोग हौसले के साथ शीशा तोड़ने में जुटे थे। सूटकेसों और झोलों से ठेल-ठालकर अगले दोनों शीशे मुसल्लम चकनाचूर कर दिए गए और फिर खरोंचें और मामूली टूट-फूट लिए लोग धीरे-धीरे बाहर आ गए।
बाहर का नजारा ठोस भय का था। शायद बस खड्ड में चली जाती तो भी इतना डर नहीं लगता। बस अगर इतनी खचड़ा न होती तो शायद इसकी यह दशा भी न होती। लेकिन अगर यह वाकई ठीक रहती और बीरगंज रोड की बाकी बसों जितनी रफ्तार से चल पाती तो पलटने के बाद शायद थोड़ा और घूमती। अभी यह लगभग खड्ड के कगार पर लटकी हुई थी। बस, पाँच-सात फुट की कसर रह गई वरना पूँछ के बल यह सीधी नीची गई होती और हम लोगों की यहीं पूर्णाहुति भी हो गई होती।
हम लोग कहाँ हैं, यहाँ कितनी देर रुक पाएँगे, यहाँ से आगे जाएँगे तो कैसे, यह सब बताने वाला कोई नहीं था। ड्राइवर और कंडक्टर हर दुर्घटना की तरह यहाँ भी हबड़-धबड़ में निकलकर सबसे पहले फरार हो चुके थे। फिर थोड़ी देर में पीछे से आने वाली दो बसों ने मेहरबानी कर के कुछ-कुछ लोगों को जगह दे दी और 'कुर्बान' फिल्म का नया-नया आया चाट शिरोमणि गाना - 'तू जब-जब मुझको पुकारे, मैं दौड़ी आऊँ नदिया किनारे' लगातार कम से कम सौ या डेढ़ सौ बार सुनते हुए सुबह तक हम लोग बीरगंज पधार गए।